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* सुरेंद्र कुमार जायसवाल
लखनऊ । उप्र में दीपावली की रात मासूम बच्ची के साथ दुष्कर्म के बाद उसका पेट फाड़ के शरीर के अंग खा लिये जाने जैसी हदयविदारक घटना हो या फिर हाथरस, बलरामपुर, बुलंदशहर, और भदोही में ही बीते महीनों में बच्चियों के साथ घटित अन्य घटनाएं हो रूहं कंपाने के लिए काफी हैं। आखिर सभ्य समाज का मानव इतना असभ्य क्यों होने लगा है, लोगों में ऐसी मानसिक विकृतियां क्यों पनप रही हैं कि महिला और बच्चियों के साथ होने वाले घिनौने अपराध खुद अपना ही रिकाॅर्ड तोड़ रहे हैं।
यह बात सोचने पर मजबूर करती है की , आखिर समाज किस ओर जा रहा है ! प्राचीन भारत के इतिहास में महिला अपराध की घटनाएं तब भी घटित होती थी, पर बाल अपराध लगभग न के बराबर ही थे, लेकिन राजाओं द्वारा छोटे अपराध की भी कड़ी सजा दी जाती थी। 80 और 90 के दशक में भी बच्चियों के साथ नृसंस घटनाएं न के बराबर देखने और सुनने को मिलती थी, पर इधर लगभग एक दशक में बच्चियों के प्रति जो रूहं कंपा देने वाले अपराध घटित हो रहे हैं, उससे वाकई अंतरआत्मा झकझोर कर देने वाली है। इन सबकी जो अहम वजह है वह संयुक्त परिवारों का विघटन, तब के परिवारों में बच्चे दादा,दादी, नानी, नानी, चाचा, चाची व माता पिता के साथ रहते थे, बच्चे अपना होश संभालते ही अपने इस सामाजिक तानाबाने को इतना मजबूत पाते थे कि वह अपने से बढ़ों को देख कर ही खुद ब खुद संस्कारों को आत्मसात कर लेते थे, वहीं माता पिता भी अपने बच्चों की परवरिश को लेकर खासा ध्यान देते थे। जबकि आज की अतिमहात्वाकांक्षी जिंदगी में मां और बाप दोनों नौकरी पेशा में है तो बच्चों की देखभाल करे कौन, मेड के भरोसे बच्चे पल रहे हैं। वहीं रोजगार न होने से युवाओं में बेतहाशा निराशा हो रही है, अवसाद के कारण वह अच्छे-बुरे का भेद नहीं कर पा रहे, जिसके कारण युवा न चाहते हुये भी अपराध की जलकुंभी में धंसते जा रहे हैं। असल मायने में अब इस दौर में समाज सुधार की बहुत जरूरत है, प्रबुद्ध वर्ग को आगे आना चाहिए, वृद्धजनों की छत्रछाया बहुत जरूरी है, हम सबको अपने-अपने परिवार से इसकी शुरूवात करनी चाहिए, वरना भविष्य में और भी गंभीर परिणाम हो सकते हैं।